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नील विद्रोह: दमनकरी नीतियों से आजादी की कहानी

नील विद्रोह, वास्तव में यह एक किसान विद्रोह था जिसमे किसानों द्वारा अंग्रेजों के दमन व शोषणकारी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास किया गया।

Sahil Chandel
  • Oct 9 2021 3:20PM

 

नील विद्रोह, वास्तव में यह एक किसान विद्रोह था जिसमे किसानों द्वारा अंग्रेजों के दमन व शोषणकारी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास किया गया। इस आंदोलन ने भारत मे बड़े स्तर पर अपने प्रभाव डाला। बात 1859 ई में बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गांव के काश्तकार किसानों की है जो अपने खेतों में चावल की खेती करना चाहते थे, मगर अंग्रेज जबरन उन किसानों को नील की खेती करने पर मजबूर किया करते थे। जो किसान अंग्रेजों के आदेश का अवहेलना करते थे उन्हें प्रताड़ना झेलना पड़ती थी। दरअसल, नील का पौधा उगाने के लिए अंग्रेजों ने भारत को इसलिए चुना क्योंकि नील की खेती उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में की जाती है। इसके अलावा, तेरहवीं शताब्दी तक फ्रांस, इटली और ब्रिटेन में कपड़ा उद्योग में भारतीय नील का इस्तेमाल किया जाने लगा।


कपड़ा निर्माता वस्त्रों को रंगने के लिए भारतीय नील का इस्तेमाल किया करते थे। इससे यूरोपीय बाजार में भारतीय नील की मांग काफी बढ़ने लगी और अन्य देशों के नील की मांग घटने लगी। कपड़ा रंगने वाले उद्योगकर्ताओ के अनुसार, भारतीय नील समृद्ध और व्यापक रंग देता था। इसका असर ये हुआ कि यूरोपीय बाजारों में भारतीय नील की कीमत बढ़ने लगी। नील के इस बढ़ती कीमत व मांग में ईस्ट इंडिया कंपनी को लाभ कमाने का अवसर दिखा और परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने भारत मे नील की खेती करने के लिए क्षेत्र विस्तार करना शुरू कर दिया। भारतीय किसानों से उनके मर्जी के खिलाफ व्याप्त स्तर पर नील की खेती कराई जाने लगी।


उस दौरान भारत मे दो तरह के खेती की प्रक्रियाएं चला करती थी। एक निज आबाद व रैयती प्रणाली। नील की खेती मुख्यत रैयती प्रणाली पर की जाती थी। निज यानी स्वयं प्रणाली , रैयती यानी अनुबंध प्रणाली। इस अनुदान की अवधि एक से लेकर दस साल तक की भी होती थी। अंग्रेज बंगाल और बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर किसानो को अनुबंध पर दे देते थे। इसके बाद अनुबंध की प्रामाणिकता के लिए किसानों को एक छोटी सी रकम देकर अंग्रेज उनसे करारनामा लिखवा लेते थे, जो बाजार भाव से बहुत कम होता था। इस प्रथा को 'ददनी' प्रथा भी कहा जाता था। किसानों को एहसास हुआ कि उनके साथ दासों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। 


इसके तहत साल 1859-60 में नील विद्रोह की शुरुआत हुई। बंगाल के नदिया जिले के किसानों ने नील की खेती करनी बंद कर दी और अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद करने लगे। नदिया जिले के ही गोविंदपुर गांव व चौगाछा गांव के दो किसान 'दिगंबर विश्वास' एवं 'विष्णु विश्वास' ने इस आंदोलन की शुरुआत की। धीरे-धीरे यह आंदोलन व्यापक रूप लेने लगा। दीन बंधु मित्रा द्वारा 1859 में लिखी गई साहित्य 'नील दर्पण' में नील की खेती करने वाले किसानों का दर्द व संघर्ष बताया गया है। इस विद्रोह में अन्य किसान भी जुड़ने लगे। अखबारों के मदद से किसान की पीड़ा जन-जन तक पहुँचने लगी। दबाव के कारण सरकार ने इस मामले की जांच के लिए समिति बनाई, जिसमे पाया गया कि नील खेती के प्रावधान किसानों के लिए दमनकारी है। इस प्रकार अन्य कोशिशों के साथ 1860 ई तक नील की खेती पूरी तरह से समाप्त हो गई और अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने वालों के लिए प्रेरणास्रोत रही।

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